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आलोचना

दांपत्य में जनतंत्र अर्थात नवजागरण से आगे : केदारनाथ अग्रवाल की कहानियाँ

शंभु गुप्त


एक मूल्यनिष्ठ वैकल्पिकता की खोज

केदारनाथ अग्रवाल के पास कथा-साहित्य के नाम पर ज्यादा सामग्री नहीं है; सिवाय 'पतिया' नामक एक छोटे-से उपन्यास के, जो 1985 में परिमल प्रकाशन से आया था और 'उन्मादिनी' नामक एक छोटे-से कहानी-संग्रह के, जिसमें कुल आठ कहानियाँ हैं, जो केदारजी के अभिन्न साथी और पुराने शोधकर्ता और केदार शोध पीठ 'न्यास', बाँदा के सचिव कवि नरेंद्र पुंडरीक के संपादन में अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद से शीघ्र छपकर आने वाला है। इस प्रकाशनाधीन संग्रह की टंकित पांडुलिपि उन्हीं से वाया प्रो. संतोष भदौरिया मुझे उपलब्ध हुई है।

इतनी कम सामग्री के आधार पर किसी लेखक का एक कथाकार के रूप में अध्ययन, आकलन; और वह भी इस स्थिति में कि मूलतः वह एक युगनिर्माता और अपनी तरह के एक अद्वितीय कवि के रूप में लंबे समय से साहित्येतिहास में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाए चला आ रहा हो; सचमुच एक गहरी आलोचनात्मक चुनौती और जोखिम-भरा काम है। इस चुनौती और जोखिम का सामना तभी किया जा सकता है जब वस्तु और शिल्प दोनों ही स्तरों पर हम एक नवोन्मेष और अभूतपूर्वता वहाँ पाएँ। केदारनाथ अग्रवाल की कहानियों के बारे में तो नहीं, लेकिन उपन्यास 'पतिया' के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि यह उस समय की, अपने समय से काफी आगे की रचना है।

केदारनाथ अग्रवाल की कहानियाँ, ऐसा प्रतीत होता है कि, बहुत पहले लिखी गई हैं। बहुत पहले का मतलब, लगभग एकदम प्रारंभ में। और एकदम प्रारंभ से मतलब वह समय, जब वे अपनी 'बालेंदु'-कालीन 'सुकवि'वादी छवि से मुक्त होने की आत्मसंघर्षपूर्ण प्रक्रिया में चल रहे थे। संभवतः 'बालेंदु'-काल के अवसान और जनोन्मुख कविता के आविर्भाव - जिसकी पहली बानगी 'युग की गंगा' में देखने को मिलती है - के बीच का संक्रमण-काल इन कहानियों के सृजन का समय है। यह समय केदारजी के कवित्त-सवैये से हिंदी की नए जनवादी भावबोध की कविता की ओर प्रयाण का विकासशील समय है। मुख्य रूप से यह छायावाद के अवसान और नई कविता के उद्भव के बीच का, भारी उलट-फेर से भरा, वह ऐतिहासिक समय है जब राजनीति और साहित्य की दुनिया लोकतंत्र के शुभागमन और स्वागत की तैयारी में जुटी थी लेकिन यह भी आशंका अपना फन उठाने को उद्यत थी कि कैसे इस पर पटरा फेरा जाए! यानी कि एक ऐसा संश्लिष्ट समय जब घालमेल और घनचक्करी की सबसे ज्यादा संभावना रहती है। इस घालमेल और घनचक्करी से वही व्यक्ति निजात हासिल कर पाता है जिसका अंतर्मन लोकतांत्रिक मूल्यों और जनोन्मुख वैचारिकी के प्रति अनंत स्वाभाविक निष्ठा से भरा हो और व्यवहार में भी जो इन्हें अपनाए हुए हो। ऐसा नहीं हो सकता कि आप सोचें कुछ और लिखें-बोलें कुछ! निश्चय ही ऐसा बाकायदा आप कर सकते हैं और कुछ दिनों तक कुछ सत्ता भी आपके कदम चूम सकती है लेकिन जैसे ही इसकी कलई खुलेगी आप चारों खाने चित्त नजर आएँगे। या तो आप स्वैराचार में खुद ही अपना काम तमाम कर लेंगे; जैसा कि उनकी 'समाज की भूल' शीर्षक कहानी में उसके दोनों पुरुष पात्र - वकील साहब और वल्लभ - करते हैं या फिर अपने किए-बोले पर आपको सार्वजनिक रूप से इस कदर अपमानित होना पड़ेगा कि आपकी सारी मठाधीशी और महंतई धूल चाटने लगेगी; जैसा कि उनकी 'नर्तकी' शीर्षक कहानी में होता है जिसमें एक महंत मठ में नृत्य के अवसर पर उस समय की सबसे योग्य और प्रतिभा-संपन्न नर्तकी पर अशुद्ध आचरण और पापमय जीवन का आरोप लगाता है और गलत सिद्ध होने पर अपनी महंतई से हाथ धो बैठता है। केदारजी अपनी इन थोड़ी-सी कहानियों के मार्फत ही एक मूल्यनिष्ठ वैकल्पिकता की खोज हमें उपलब्ध कराते हैं। यह अपने उलझे हुए समय के लिए उनका रचनात्मक प्रत्युत्तर है।

लेखकीय आत्मविश्वास और रचनात्मकता अर्जित करने की प्रक्रिया

कोई चाहे तो बड़े आराम से यह आरोप लगा सकता है कि केदारजी की ये कहानियाँ गलदश्रु भावुकता, गझिन तत्समता, परंपरापुष्ट सांस्कारिकता, काव्योपादान-संकुल रूपकात्मकता इत्यादि छायावादी रचनोपादानों से लबरेज हैं और एक बहुत ही सीमित कथांश वस्तु के रूप में इनमें उभर पाया है। इस आरोप को आगे बढ़ाते हुए वह यह भी अनुमान कर सकता है कि जैसे लेखक आत्मविश्वास और रचनात्मकता अर्जित करने की प्रक्रिया में यहाँ है।

इस आरोप से नितांत इनकार हमें नहीं है हालाँकि यहाँ हम यह जरूर जोड़ना चाहेंगे कि आत्मविश्वास और रचनात्मकता अर्जित करने की यह प्रक्रिया बहुत सहज और अनायास तरीके से चली है। ठीक वैसी जैसी कि आगे वे कविता में आयत्त करते हैं। कविता की तरह कहानी में वे अपनी गति नहीं बना पाए लेकिन सवाल यहाँ किसी लेखक के किसी विधा-विशेष में सफल या असफल या पारंगत या कुशल-अकुशल होने का नहीं है। सवाल दरअसल यह है या होना चाहिए कि कोई लेखक अपनी किसी रचना में अपने समकाल को लक्ष्यबद्ध कर सका है या नहीं और कर सका है तो कितना कर सका है? इसके साथ ही सवाल इस बात का भी होना चाहिए कि वह अपने समकाल का अतिक्रमण कर सका है या नहीं और उससे आगे जा सका है या नहीं? कहानियों के बाबत केदारजी का अपने समकाल का अतिक्रमण करने का एक उदाहरण हमने ऊपर दिया जिसमें अपने ऊपर हुए अन्याय और अत्याचार का विरोध संबंधित पात्र बाकायदा तत्काल करते हैं। नर्तकी जब महंत द्वारा कभी उसकी कामवासना की पिपासा की पूर्ति का साधन बनने से इनकार करने की प्रतिघात एवं प्रतिशोध की अहंकारी कुंठा में अब शुद्ध आचरण की न होने और पापमय जीवन बिताने की दोषारोपित की जाती है तो तत्काल वह उस ढोंगी महंत को मजा चखाने और सार्वजनिक रूप से उसे शीशा दिखाने का तय करती है और अपना निर्भीक और आत्मसम्मानपूर्ण पक्ष रखते हुए प्रमाणित करती है कि 'जो शुद्ध है उसे दंड से क्या भय।' इसके साथ वह यह भी कहे बिना नहीं रहती कि 'जिस व्यक्ति ने मुझ पर दोषारोपण किया था उसका चरित्र तो आपने देख लिया। भला ऐसी कामी और नीच आत्मा का क्या विश्वास करना उचित है?'

'नर्तकी' शीर्षक यह कहानी आज से लगभग एक सौ साल पहले की मंदिर एवं मठ-केंद्री हिंदू-धर्मसत्ता की कलई खोलने वाली आज से लगभग सत्तर साल पहले लिखी गई कहानी है। निश्चय ही, यह आज का यथार्थ और आज की कहानी नहीं है। हालाँकि भारत में कई जगह आज भी ऐसे दृश्य दिखाई देते ही तो हैं! जो हो।

प्रतिरोध और मूल्यनिष्ठा की स्थायी स्वाभाविक प्रवृत्ति

आज का प्रातिनिधिक यथार्थ न होने के बावजूद यह कहानी जो हमें उद्वेलित करती है तो सिवाय इसके इसका और क्या कारण हो सकता है कि यह कहानी हमें हमारी प्रतिरोध और मूल्यनिष्ठा की उस स्थायी स्वाभाविक प्रवृत्ति का अभिज्ञान कराती है जो हमारे अंदर नितांत आदिम काल से लेकर आज तक वर्तमान और गतिमान है। जिन लोगों को नर्तकी जैसे पात्र अपनी बिरादरी के न लगते हों, उनके बारे में तो क्या कहा जाए; लेकिन जो उन्हें एक पूर्ण मनुष्य और सभ्यता के विकास में बराबर का हिस्सेदार मानते हैं, उनके लिए यही कहना पर्याप्त है कि यह नर्तकी न केवल अपना व्यक्तिगत बचाव करती है बल्कि आगे आने वाले समय के लिए एक वैचारिक विकल्प का उदाहरण भी प्रस्तुत करती है। जिस ऐतिहासिक समय को यह कहानी अपना संलक्ष्य बनाकर चली है, वह पतनशील धर्मसत्ता के अहंकार-विगलन का वह नवजागरणकालीन दौर है, जब सामंतशाही भी अपनी अंतिम साँसें गिनने लगती है। इस कहानी में सामंतशाही और महंतशाही की जुगलबंदी और परस्परान्वितता का जो संक्षिप्त उल्लेख किया गया है, वह इससे पहले के उस भीषण सांघातिक गैरजनतांत्रिक समय की ओर संकेत है, जब नर्तकी जैसी ये स्त्रियाँ मायापुर के जैसे देवालयों के कामुक नीच महंतों की 'कामवासना की पिपासा की पूर्ति' बनने के लिए अभिशप्त थीं, ये लोग इन स्त्रियों के जीवन को अपनी 'कामपिपासा की तृप्ति का साधन' समझते थे। यह सब-कुछ एक तरह की दाब-धौंस की रणनीति से चलता था। अमूमन स्त्रियाँ या तो भयवश या अपने 'भाग्य खुल जाने' और 'मालामाल हो जाने' के लालच में इन्हें 'प्रसन्न' रखती थीं। यदि किसी इस नर्तकी जैसी स्त्री ने कोई चीं-चपड़ की तो बस उसकी खैर नहीं! उसे 'महंतों की क्रूरता का भाजन' बनना पड़ता था और वह क्रूरता भी ऐसी कि लेखक कहता है कि 'महंतों की क्रूरता का भाजन ईश्वर करे किसी को न बनना पड़े।' उस समय की महंतशाही अपने वैभव और ऐशोआराम में 'अमीरों के भी नसीब' को मात देती थी और अपनी क्रूरता की विकरालता और भयंकरता में सामंतशाही को! लेखक लिखता है - 'पाठक को ज्ञात होना चाहिए कि महंतशाही और सामंतशाही में बहुत कम अंतर है। कभी-कभी तो महंतशाही का रूप सामंतशाही से भी भयंकर और विकराल हो जाता है। उनके लिए कोई कड़ा दंड नहीं था।' महंतशाही कतई फासिस्टशाही की तरह काम करती थी। यानी कि यदि आप उनके इशारों पर नाचने को तैयार नहीं हैं तो हाथ के हाथ आप उनके षाड्यंत्रिक प्रतिक्रियावादी प्रहार के लिए तैयार रहिए! इस प्रतिक्रियावाद का स्वरूप देह-हनन से लेकर चरित्र-हनन की हिंसा तक कुछ भी हो सकता है। इस मामले में उनका स्वैराचार उनकी सुविधा-सुगमता पर पूरी तरह निर्भर करता है। जैसे कि यदि वह पुरुष हुआ तो उनके पाले हुए गुंडे उसके हाथ-पैर तोड़ने के अलावा उसकी हत्या तक कर सकते हैं, और यदि वह स्त्री हुई तो उसके तो चरित्र पर लांछन लगाना ही पर्याप्त होगा! किसी भी आत्मगौरव-संपन्न स्त्री को पटखनी देने के लिए उसके 'सतीत्व' पर सवाल उठा देना काफी है। दरअसल, एक तरफ तो सतीत्व का शर्तनामा और दूसरी तरफ उसका हलफनामा; ये दोनों ही पैमाने पुरुष-सत्ता ने अपनी इच्छा-पूर्ति को घ्यान में रखकर बनाए हैं। इन पैमानों का ऐसा निर्माण अंदर और बाहर दोनों तरफ से स्त्री को स्वत्वविहीन और तदनंतर उसे पूरी तरह अपना विषय बना लेने के उद्देश्य से किया गया है। इसमें भी कोढ़ में खाज यह कि धर्म-सत्ता की वैधानिकता इसे हासिल है। धर्मसत्ता ने न केवल इसे वैधता दी बल्कि खुद भी वह इसमें एक हिस्सेदार बनी। स्त्री के पास अब इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं था कि वह अपने सारे हथियार डाल दे और आत्मविस्मृति में चली जाए! लेकिन इस आत्मविस्मृति में भी उसे सज-धजकर और आकर्षक रूप में अपने आका के सामने उपस्थित और प्रस्तुत होना होता था जिसका परिणाम यह हुआ कि वह नितांत एक उपस्कर या उपजीव्य बनकर रह गई जिसका सिर्फ उपयोग या उपभोग किया जा सकता है!

स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता की स्थापना

'नर्तकी' शीर्षक इस कहानी में केदारनाथ अग्रवाल इस पूरे प्रक्रम को शब्दांकित हालाँकि करते नहीं हैं लेकिन इसकी ऐतिहासिक अनुगूँज स्पष्टतः यहाँ पाठक को सुनाई दे जाती है। मायापुर के देवालय का वह नीच, कामलोलुप महंत इसी मंतव्य की संरचना का हेतु है। लेकिन जैसा कि मैंने पहले संकेत किया; यह एक चली आती परंपरा की बानगी है, आलोचनात्मक यथार्थ की प्रस्तुति है; समाजवादी यथार्थ आगे है, जहाँ नर्तकी इस महंत को उसी की माँद में जाकर उसी के हथियार से सार्वजनिक रूप से धराशायी करती है। ऐतिहासिक रूप से एक बदला हुआ समय यहाँ मूर्तिमान होता है और पाठक बाजाब्ता उसकी उपस्थिति महसूस करता है - 'परिणामस्वरूप महंत अपराधी ठहराया गया। उसे कलंकित जीवन व्यतीत करने का दंड मिला। उसे संध्या के पहिले पाँच बजे ही प्राणदंड मिलेगा। यह बात सर्वत्र फैल गई। पंचायत का कार्य समाप्त हुआ। अपराधी लाकर बंदीगृह में डाल दिया गया।' हालाँकि लेखक यहाँ 'अपराधी नहीं, अपराध से घृणा करो' के सिद्धांत और स्त्री-संबंधी अपनी इस पुरुषोचित समझ के तहत कि वह अपनी मानवीय संवेदनशीलता के वशीभूत नैसर्गिक रूप से क्षमाशील होती है; महंत को थोड़ा बचा ले गया है! संभवतः यह केदार पर गांधीवाद का असर है जिसमें थोड़ी-सी नवजागरणकालीन रूमानियत भी घुली-मिली है। जो हो। लेकिन इतना तय है कि केदारजी यहाँ स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता की स्थापना में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते। यह कहानी खत्म दरअसल वहीं होनी थी, जहाँ यह लंपट महंत हाथी द्वारा कुचले जाने की सजा पाने वाला था या अधिक से अधिक वहाँ, जहाँ गुरू महंत द्वारा हृदय-परिवर्तन की उम्मीद में मृत्युदंड माफ करके 'दीन-दुखियों और आते-जाते यात्रियों की सेवा करने' की 'सजा' मुकर्रर किए जाने की घोषणा की जाती है। 'देवालय की नीति में परिवर्तन' किए जाने और 'दंड-विधान-धाराएँ बदल' दिए जाने की जो पृष्ठभूमि बनाई गई है, वह कहानी पर लेखक का अपना विचारारोपण है, जो सन चालीस के आस-पास केदारजी का सोच स्त्री के बाबत संभवतः रहा होगा! क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि इस तरह के महंत चाहे जितनी भी दीन-दुखियों और आते-जाते यात्रियों की सेवा कर लें, चाहे कितनी ही बार कितने ही अपराधों के लिए इन्हें माफ किया जाता रहे, इनकी मूलभूत हेरा-फेरी करने की प्रवृत्ति कभी भी बदलती नहीं है, जैसे ही ये मौका पाते हैं, लोगों की आँखों में धूल झोंक फिर वही करने लगते हैं जिसके लिए कई बार दंडित इन्हें किया जा चुका होता है। इनका प्रतिक्रियावाद कभी निःशेष नहीं होता, उसके अवशेष उनके अवचेतन में हमेशा विद्यमान रहते हैं। क्या इस देवालय का यह मुख्य महंत इस तथ्य से परिचित नहीं था? फिर क्यों उसने देवालय की नीति में यह परिवर्तन किया और वह भी नर्तकी के प्रभाव-स्वरूप? क्या इस तरह उसने एक तीर में कई शिकार नहीं कर लिए? एक तो यह कि नर्तकी के दोषारोपण से केवल यह लोलुप महंत नहीं बल्कि सभी महंत यानी समूचा देवालय लोकापवाद की गिरफ्त में आ गया था। दूसरे यह कि नीति में परिवर्तन और दंड-विधान-धाराएँ बदलने में नर्तकी के सहयोग और उसके प्रति कृतज्ञ होने की सार्वजनिक घोषणा कर न केवल उसकी क्रोधाग्नि पर पानी डाला बल्कि उसे आत्मगौरवान्विति का अनुभव भी कराया और यह भी कि देखो, हम स्त्रियों को कितना महत्व देते हैं और तीसरे यह कि अपने शिष्य महंत को भी आखिरकार अकाल मृत्यु से उसने बचा ही तो लिया! ऐसी नर्तकियाँ तो आती-जाती रहेंगी, शिष्य महंत चला गया तो यह देवालय का भारी नुकसान होगा। उसे मृत्युदंड देकर प्रकारांतर से हम अपने पैरों में ही कुल्हाड़ी मारेंगे! अतः हो सकता है, परदे के पीछे उसने नर्तकी से कोई समझौता किया हो और बाहर आकर उसी के मुँह से रियायत की पेशकश कराई हो! जो हो। कुल मिलाकर हुई यह लीपापोती ही।

वैचारिकी और तार्किकता का केदारपन

स्त्री की अस्मिता केदारनाथ अग्रवाल की इन कहानियों का महत्वपूर्ण कन्सर्न है। उनकी एक बड़ी अजीब-सी कहानी है - 'समाज की भूल'। अजीब दरअसल इस अर्थ में कि ऐसी कहानियाँ लिखने का चलन हिंदी में एकदम न के बराबर है। इस कथ्य पर हिंदी में मुश्किल से दो-चार कहानियाँ ही मिल पाएँगी। यह कथ्य है, स्त्री को पराधीन या उपजीव्य बनाने वाली पुरुष-मानसिकता की आत्मघाती प्रकृति। यानी कि पुरुष जो स्त्री को अपने अधीन बनाता है और उसकी स्वतंत्र और स्वायत्त अस्मिता को पंगु बनाकर उसे अपना मुखापेक्षी बना लेता है और उसके समूचे विकास को अवरुद्ध कर देता है, तो दरअसल यह स्त्री के लिए चाहे जितना सांघातिक हो, स्वयं पुरुष के लिए भी कोई कम आत्मघाती नहीं होता। एक पराधीन और परमुखापेक्षी और आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से पराश्रित स्त्री वस्तुतः एक आत्महीन, स्वत्वहीन और व्यक्तित्वहीन प्राणी होता है, जिसका अपना कोई मौलिक और सार्थक अस्तित्व नहीं होता, जो हमेशा अनिर्णय, अनिश्चय और आत्मविस्मृति की मनःस्थिति में रहता आता है। ऐसी स्त्री का जीवन उसके अपने लिए भी और किसी भी पुरुष के लिए भी लगभग निरर्थक होता है। केदारजी यहाँ स्त्री पर नहीं बल्कि पुरुष पर इसकी जिम्मेदारी डालते हैं। उनका तर्क है कि एक स्वतंत्र-चेता, स्वायत्त और शारीरिक-मानसिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्री ही अपना तथा अपने पुरुष-साथी का जीवन उपादेय बना सकती है। स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के लिए हैं लेकिन यह परस्परान्वितता तभी सफल और सार्थक हो सकती है जब वे न केवल एक-दूसरे को बाँधें बल्कि मुक्त भी करें। केवल स्त्री से अपेक्षा करना और यह कहना कि 'नारी की सफलता इस बात में है कि वह पुरुष को बाँधे और सार्थकता इस बात में है कि वह उसे मुक्त करे'; एक इकतरफा माँग है और अन्याय है। नारी अपने पूर्ण व्यक्तित्व में तभी सफल और सार्थक होगी जब वह भी पुरुष द्वारा पहले बाँधी और फिर मुक्त की जाएगी! इसी प्रक्रिया और प्रक्रम से उसके स्वतंत्र और स्वायत्त व्यक्तित्व और अस्तित्व का राजमार्ग प्रशस्त हो सकता है। केदारजी अपनी इन थोड़ी-सी कहानियों में इस इतनी बड़ी बात को बेहिचक कह पाए हैं, यह कोई साधारण बात नहीं है। ऐसी रचनात्मक क्षमता दरअसल विचार से ज्यादा व्यवहार से आती है। केदारजी के विषय में हम जानते हैं और यह पत्नी पार्वती देवी को लिखे उनके पत्रों से भी प्रमाणित होता है कि वे एक पति/पुरुष के रूप में एक पत्नी/स्त्री के स्वतंत्र एवं स्वायत्त व्यक्तित्व के कितने बड़े संपोषक/समर्थक हैं। 'समाज की भूल' शीर्षक इस कहानी में वे ऐसे दो पुरुषों/पतियों का चित्रांकन करते हैं, जो न केवल आत्मग्रस्त और कृतघ्न हैं बल्कि समाज में पुरुष-वर्चस्व के भयानक पैरोकार भी हैं। केदारजी संभवतः कहना यह चाहते हैं कि दांपत्य में जनतंत्र तभी आता या आ सकता है, जब व्यक्ति जीवन के अन्य मामलों और संबंधों-संदर्भों में भी जनतांत्रिक हो। ऐसा नामुमकिन है कि एक जगह तो आप - दरअसल जहाँ आपका हित सध रहा हो - जनतंत्र की हिमायत करें और दूसरी जगह - जहाँ जनतांत्रिक होना आपको असुविधाजनक लग रहा हो, वहाँ आप उससे पल्ला झाड़ लें। बेशक असुविधा की स्थिति में पल्ला आप झाड़ सकते हैं क्योंकि आप खुदमुख्त्यार हैं लेकिन फिर अन्यत्र कहीं भी आप इस पल्ले को पकड़ नहीं सकते। यह एक मनोवैज्ञानिक तात्विकता है कि एक जगह यदि आप गैर-जनतांत्रिक होंगे तो अन्यत्र लाख चाहने पर भी जनतांत्रिक हो नहीं सकते। और परिवार चूँकि सबसे बड़ी प्रयोगशाला है अतः वहीं यदि आप सामंती हैं तो अन्यत्र भी सर्वत्र सामंती ही होंगे। आपकी इस नियति से छुटकारा नहीं है। इस कहानी के दोनों पुरुष-पात्र आत्महत्या में ही अपनी मुक्ति तलाशने जैसी स्थिति में आ पहुँचे हैं तो इससे यही तो निष्कर्ष उपलब्ध होता है कि ये दोनों ही घोर समाज-विरोधी व्यक्ति हैं। फासिज्म अंततः आत्मघाती हो उठता है, इसके साथ-साथ यह भी यहाँ पुष्ट होता है कि वह समाज-निरपेक्ष भी होता ही तो है! एक तरह से देखा जाए तो दांपत्य एकमात्र वह कसौटी है, जो आपकी जनतांत्रिकता को खरा घोषित कर सकती है। एक पुरुष के रूप में स्त्री के प्रति यदि आप संवेदनशील नहीं हैं तो इसका तात्पर्य इसके अलावा और क्या हो सकता है कि समूचे समाज के प्रति ही आप संवेदनशून्य हैं - 'तेरे पति को पाल कर समाज ने भूल की है। ऐसे धनलोलुप और कृतघ्नी पुरुष का जन्म व्यर्थ है। जो अपने जीवन को दूसरे की भलाई के लिए उत्सर्ग नहीं कर सकता ऐसे नीच जीवों का न रहना ही संसार के हित की बात है। जिस समाज में मनुष्यों ने स्त्रियों के अधिकार छीन लिए हैं उस समाज को ऐसे व्यक्तियों का बलिदान कर अपनी भूल का प्रायश्चित करना पड़ेगा।' यानी कि कुल निष्कर्ष यह कि स्त्री की पराधीनता का अर्थ है, संपूर्ण समाज का ठस हो जाना। केदारनाथ अग्रवाल की यह कहानी उस समय के सुदर्शनीय शिल्प में लिखी गई है जिस पर प्रसादांतता का भी पर्याप्त असर दिखाई देता है। लेकिन इस सबके बावजूद केदारपन जो इसमें है तो इसी के चलते कि वैचारिकी और तार्किकता उनकी अपनी है, जिसे साँच की तरह किसी तरह की कोई आँच कभी नहीं होती।

दांपत्य : वधःस्थल नहीं , अनंत संभावनाओं का जीवनालय

केदारजी के यहाँ दांपत्य स्त्री-पुरुष संबंधों का सर्वोपरि सत्व है। और दांपत्य भी वह, जहाँ पति-पत्नी के बीच निखालस बराबरी का संबंध हो। पत्नी जहाँ उपजीव्य के रूप में नहीं बल्कि एक साथी और सहभागी के रूप में मान्य हो। केदारजी हिंदी के ऐसे अकेले कवि हैं जिन्होंने इस बराबरी वाले दांपत्य और पति-पत्नी के तात्विक प्रेमाकर्षण पर सबसे ज्यादा कविताएँ लिखी हैं। कहानियाँ वे ज्यादा नहीं लिख पाए; लेकिन यदि लिखते तो यह लगभग निश्चित है कि उनकी अधिकांश कहानियाँ दांपत्य-प्रेम की सत्यगाथाएँ होतीं। इस 'उन्मादिनी' संग्रह की आठ कहानियों में से पाँच स्त्री-पुरुष प्रेम की कहानियाँ हैं और बेशक यह प्रेम या तो वर्तमान पति-पत्नी के बीच है या फिर यदि यह पूर्वराग है तो शीघ्र ही और निश्चय ही दांपत्य की पूर्व-पीठिका के रूप में है। हो सकता है, प्रेम को 'अनियंत्रणीय' मानने वाले हिंदी के बहुत-से आधुनिक और उत्तर-आधुनिक लोगों को यह एक लेखक का 'पिछड़ापन' लगे लेकिन जब वे इसकी अटूट परस्परता और एकान्वितता देखेंगे तो हो सकता है उन्हें यह भी लगने लगे कि काश कि जीवन में हम भी एकाध बार ऐसा लिख-जी पाते! जो हो। केदार का यह दांपत्य स्त्री का वधःस्थल नहीं अपितु अनंत अभूतपूर्व संभावनाओं के द्वार खोलने वाला एक जीवनालय है।

स्त्री : एक व्यक्ति के रूप में स्वयं की आजादी का सपना

इन कहानियों के आस-पास ही केदारजी ने एक लेख लिखा था - 'वर्तमान हिंदू समाज में स्त्रियों का स्थान'। इस लेख में एक, अनेकानेक स्तरों पर अनेकानेक रूपों में खुले आसमान में उड़ने को तत्पर, जिस स्त्री का रेखांकन है, वह गांधीजी के आह्वान पर देश की आजादी में पुरुषों की ही तरह बराबर का हिस्सा लेने के साथ-साथ एक व्यक्ति के रूप में अपनी स्वयं की आजादी के भी सपने देखने वाली एक अनंत संभावनाशील स्त्री है जो कोई भी बंधन और बाड़ाबंदी अब अपने सामने नहीं पाती और अगर कोई रुकावट है भी तो उसे अपने जीवट और कौशल से रफा-दफा करने को तैयार है। केदारजी लिखते हैं - 'कोई भी जादूगर स्त्री जाति को इस समय पिटारी में बंद करके नहीं रख सकता। यही कारण है कि वर्तमान 'हिंदू समाज' में स्त्री का एक नवीन स्थान हो गया है। 'स्त्री का नवीन रूप क्या है? इस महापरिवर्तन में पड़कर नारी न तो देवी का रूप है न चेरी का। वह पुरुष की सहचर है। यदि पुरुष पति बनकर उसे सात परदों के भीतर मनमोहिनी माया की तरह छिपाकर रखना चाहता है तो वह उसका साथ न देगी। किसी भी प्रकार मार्ग से वह सूक्ष्म रूप धारण कर बाहर निकल आवेगी। वह समझती है कि वह भी अपनी सत्ता रखती है और उसमें भी गुण-अवगुण है। जिसे प्रकाशित और अप्रकाशित करने का उसे पूर्ण अधिकार है।' इस लेख में आगे परंपरावाद, रूढ़िवाद और चूल्हे-चौके से मुक्ति का उपक्रम करती स्त्री का चित्र खींचते हुए वे लिखते हैं - 'वह परंपरावाद के पूर्ण रूढ़िवाद से अपना विश्वास हटा चुकी है। आभूषण पहन कर अपना बोझ और नहीं बढ़ा लेती। नारी ने शिक्षा के महत्व को समझ लिया है और वह माता होने के पहले अपना कर्तव्य समझती है कि उसे विदुषी हो जाना चाहिए। समता का भाव अब अच्छी तरह से स्त्रियों ने अपनाया है। वे इसे बुरा नहीं समझतीं। घर में रह कर चूल्हा चक्की के पीछे दीवानी बने रहना उसको शोभा नहीं देता।' इस सबका जो परिणाम होगा वह यह कि स्त्री और पुरुष के बीच न जाने कब से चला आता तरह-तरह की असमानता का संस्कार धीरे-धीरे कम होता हुआ एक दिन एकदम विलुप्त ही हो लेगा - 'वे क्या हैं यह उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया है। पुरुषों में और स्त्रियों में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाएगा। केवल शारीरिक अंतर होने से वे अपना कार्य क्षेत्र कम नहीं कर सकती हैं। वे भी पुरुषों के साथ हाईकोर्ट में वकालत करेंगी तथा स्टेशनों पर टिकट बेचेंगी। स्त्री समाज में पुरुष का काम क्यों नहीं कर सकती? उसने सोच विचार कर यह परिणाम निकाला है कि स्त्री और पुरुष के कार्य क्षेत्र में अंतर कुछ भी नहीं है। दोनों के क्षेत्र समान हैं। उनमें कोई अंतर नहीं है।'

दांपत्य में जनतंत्र अर्थात नवजागरण से आगे

यह दरअसल नवजागरण ही नहीं, नवजागरण से भी आगे के दौर की स्थिति है। ऐसा प्रतीत होता है कि केदारजी; जैसा कि एक 'बातचीत' में, जो नरेंद्र पुंडरीक द्वारा संपादित उनकी अप्रकाशित गद्य-रचनाओं की नई किताब 'केदार : शेष-अशेष' में संकलित है, कहते हैं कि 'विशेष अध्ययन मैंने विदेशी काव्य का ही किया है।', और तय है कि इसमें काव्य के साथ-साथ अन्य गद्य-साहित्य भी शामिल रहा होगा; फ्रांस और अमेरिका तथा अन्य देशों के स्त्रीवादी साहित्य और वहाँ चल चुके और चल रहे स्त्रीवादी आंदोलनों से बखूबी परिचित रहे हुए होंगे। कम से कम हिंदुस्तान में तब तक स्त्री के संबंध में इतनी जागृति नहीं आई थी। केदारनाथ अग्रवाल स्त्री-संबंधी वैचारिकी और विशेषतः 'दांपत्य में जनतंत्र' या कहें कि 'जनतांत्रिक दांपत्य' के अपने विशेषाग्रह के मामले में अपने समय से काफी आगे चल रहे थे।


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हिंदी समय में शंभु गुप्त की रचनाएँ